Wednesday, November 29, 2023
Homeलोक कथाएँगुजराती लोक कथाएँदानेदार दुश्मन : गुजरात की लोक-कथा

दानेदार दुश्मन : गुजरात की लोक-कथा

Danedar Dushman : Lok-Katha (Gujrat)

अलबेले अहमदाबाद जैसा एक नया नगर। उसमें लखधीर सेठ नामक एक व्यवहार-कुशल बनिया। जन्म से ही खूब समृद्ध। अपनी विशिष्ट बुद्धि और साहस से लक्ष्मी को सहेज रखा है। कमाई के कुछ रास्ते खोज लिए हैं। द्वार खुल गया है। लक्ष्मी निरंतर आ रही है और खजाना भरता जा रहा है।

लखधीर सेठ का हीराचंद नामक इकलौता बेटा है। बेहद लाड़-प्यार में पला, इसलिए कुलदीपक बिगड़े साँड़ जैसा हो गया था। पूरा दिन आवारागर्दी में व्यतीत करता। काम-काज में जरा भी ध्यान नहीं देता। बुरे मित्रों का अंधानुकरण करता, जैसी संगत वैसा असर और जैसा संग वैसा रंग। गधे के साथ घोड़ा बाँधे तो डीलडौल भले ही नहीं, पर शान तो आएगी। बोलना नहीं तो पीठ रगड़ना सीखेगा। धीरेधीरे हीराचंद में कुलक्षण आ गए। भाई-बंधु और मित्रों के साथ नाश्ता-पानी में पानी की तरह पैसा खर्च करना, जुआ खेलना, चोरी करना, वेश्यागृह जाना, एक से बढ़कर एक अवगुण!

किसी ने कहा है-

आवत अवगुण टालिए, वह टालने जोग।
नहीं फिरै व्यापी गयो, रगरग में जो रोग॥

लखधीर सेठ को लगने लगा कि लड़का हाथ से गया। उस वेला, क्षण, घड़ी या चौघड़िया ने कुछ ऐसा कर दिया कि किसी को मुँह दिखाने लायक रहा?

बेटे की चिंता में लखधीर सेठ कमजोर होते गए। चिंता रूपी कीड़ा उन्हें धीरे-धीरे खाने लगा। कुछ समय पश्चात् उन्होंने खाट पकड़ ली। उन्हें लगा कि मैं ज्यादा दिन का मेहमान नहीं हूँ। उन्होंने हीराचंद को पास बुलाकर कहा, ‘बेटा! कुछ समय बाद मैं न रहूँ तो कोई चिंता की बात नहीं है। तुम्हारे लिए हरा-भरा परिवार छोड़कर जाऊँगा।

‘लेकिन तुममें दो-चार कुलक्षण हैं, जिनसे तुम बरबाद हो जाओगे। काम-काज कुछ न करो और उड़ाते ही रहें तो कुबेर का भरा भंडार भी तीन दिन में साफ हो जाए। पसीना बहाकर कमाया हो, उसी को पता चलता है कि सौ में कितने बीस होते हैं?’

माथे पर हाथ का छज्जा बनाकर मानो भविष्यवाणी कर रहे हों, इस तरह सेठ कहने लगे कि ‘मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल नहीं है। कल को तुम अगर किसी मुश्किल में फँस जाओ तो एक उपाय करना।’

‘क्या बापू?’ हीराचंद ने कहा।

‘तुम रोज सुबह उठकर सबसे पहले लखमीचंद सेठ का मुंह देखना, फिर जो कुछ भी काम करना हो उसे करना।’

“…लेकिन बापू! अपनी तो लखमीचंद के साथ वर्षों से दुश्मनी चली आ रही है, उसका क्या?’

लखमीचंद मेरा दुश्मन तो सही पर दानेदार दुश्मन है। दोनों लोग व्यापार कर रहे हैं तो प्रतियोगिता तो रहने ही वाली है। कुंद हथियार को जिस तरह सान पर चढ़ाने से चिनगारी निकलती है, उसी तरह दुश्मनी की चिनगारी तो निकलती ही रहती है। कभी-कभार टेढ़ी लकड़ी पर टेढ़ी आरी जैसी स्थिति बन जाए तो बल भी मिलता रहता है। कोई मुसीबत आ जाए और उपाय न सूझे तो तुम प्रण कर लेना कि सुबह में उनका दर्शन करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करूँगा। तू ऐसा वचन दे तो मेरी आत्मा को शांति मिले।’

हीराचंद ने कहा, ‘बापू! तुम्हें जिस बात का डर है, वह सही है। मित्रों ने जो खराब आदतें दी हैं, वे छूट नहीं रही हैं। मुझे भी अच्छी नहीं लगती हैं, लेकिन क्या करूँ, तुम्हारा कहना मानकर मैं लखमीचंद सेठ का मुँह देखने का प्रण लेता हूँ।’

अंदर से टूट चुके लखधीर सेठ कुलदीपक की शिकायत लेकर स्वर्ग सिधार गए। रोना-धोना हो गया। रिश्तेदार आए। घर की संपत्ति अनुसार शुद्ध-तेरहीं की, दान-पुण्य किया और गाँववालों को खिलाया। गाँव का कोई भी खाने में बाकी न रहा।

घर की पूरी जिम्मेदारी हीराचंद ने उठा ली। अब कहने या रोकने-टोकनेवाला कौन रहा? हीराचंद को खुला दौर मिल गया। वह बे-लगाम घोड़ा जैसा बन गया। खर्च के नए-नए मार्ग तो थे ही। अनर्थ की राह पर लक्ष्मी लुटने लगी।

कहने वालों ने सच कहा है कि संचित कर्मों की पूँजी घट जाए तो हर तीसरी पीढ़ी में कुछ-न-कुछ नया पुराना होता है। लक्ष्मी चकमा देकर चली गई! आओ भाई और जाओ भाई! लखपति लखधीर सेठ का बेटा हीराचंद रास्ते का भटकता भिखारी बन गया। उसकी ऐसी खराब दशा हो गई कि गाँव में उसे कोई दो सेर नमक भी उधार नहीं देता था। दीपक तले अँधेरा! कुलदीपक ने बाप की इज्जत मिट्टी में मिला दी।

घर में समझदार और चतुर सुजान सेठानी उसे खूब उपदेश देती। एक-एक बात समझाती, लेकिन वह समझे तो न, इस कान से सुनता और उस कान से निकाल देता। ऐसा सब तो उसके मन में ही नहीं!

हीराचंद ने चारों तरफ नजर दौड़ाई, परंतु भिक्षापात्र में डालनेवाला कोई नहीं रहा। कहीं कुछ नहीं सूझ रहा था। दिन में तारे दिखाई देने लगे। उसे अपने पिता की आवाज सुनाई दी। डूबते को तिनके का सहारा, ऐसा सोचकर हीराचंद ने मन-ही-मन कहा, ‘चलो, बापू कह गए हैं तो वैसा ही करूँ।’

बड़ा बाजार है। नए नगर के माणेकचौक में लखमीचंद सेठ की दुकान लगी है। रेशम और किनखाब के गद्दी-तकिए के सहारे लखमीचंद सेठ बैठे हैं। दाहिने हाथ में भाग्य रेखा झलक रही है। मुनीमजी बहीखाता लिख रहे हैं। ऐसी सुंदर प्रभात में चीथरेहाल, ऐरा-गैरा जैसा हीराचंद पीढ़ी के आगे से निकला। लखमीचंद सेठ के दर्शन करके, राम-राम करके अपने रास्ते चला गया।

नियम यानी नियम। हीराचंद का यह रोज का नियम हो गया। रोज सुबह उठना। नहा-धोकर लखमीचंद सेठ की दुकान के आगे से निकलना। उन्हें राम-राम करना, फिर कोई काम-काज करना।

शुरुआत में तो किसी को पता ही नहीं चला। पंद्रह-बीस दिन हुए तो लखमीचंद सेठ का ध्यान गया। उन्हें लगा, ‘मेरा बेटा रोज सुबह-सुबह दुकान के आगे से निकलता है। कुछ बोलता-चालता नहीं है। मेरे मुँह की तरफ देख राम-राम करके चला जाता है।’

सेठ ने मुनीम से कहा, ‘उसे कल मेरे पास ले आओ।’ दूसरे दिन सुबह के पहर हीराचंद आया। सेठ का मुँह देखकर राम-राम किया और जैसे ही जाने लगता है तो मुनीम ने उसे बुलाया, ‘हीराचंद इधर आओ। तुम्हें सेठ बुला रहे हैं।’

सेठ ने हीराचंद को पास में बैठाया और पूछताछ करने लगे, ‘भाई, तुम किसके बेटे हो?’

‘लखधीर सेठ का।’

‘अरे! तू लखधीर सेठ का बेटा है ? तेरी ऐसी दशा! तेरे पिता की तो खूब जाहोजलाली थी।’

‘था तब खूब था। जीवन में धूप-छाँव आता रहता है। मरते समय मेरे पिता ने कहा था कि तुम्हारे बुरे दिन आएँ तो प्रतिदिन उठकर लखमीचंद सेठ का मुँह देखकर राम-राम करना।’

‘.. लेकिन भाई, तुम्हारा उद्देश्य क्या है ? तुझे रुपए-पैसे की जरूरत है ? व्यापार-धंधा करना हो तो मैं तुम्हारा सहयोग करूँ?’

‘न रे! ऐसे किसी उद्देश्य से मैं नहीं आता, बल्कि मेरे पिता ने कहा था कि बुरे दिन आएँ तो सुबह के समय उठकर पहले सेठ का मुँह देखकर राम-राम करना, इसलिए आता हूँ।’

‘अच्छा, कोई बात नहीं पर जरा हृदय की खिड़की तो खोल। शुरुआत से बात तो कर कि तेरी ऐसी दशा क्यों हो गई?’

‘सेठ, मेरे अंदर कुछ बुरी आदतें आ गई हैं। उन्हीं में मैं डूबा रहता हूँ।’

‘ऐसी वे कौन सी आदतें हैं?’

‘मित्रों के साथ नाश्ता-पानी करना, जुआ खेलना, चोरी करना, गणिकागृह जाना।’ बात सुनकर लखमीचंद सेठ घर के अंदर एकांत में चले गए।

थोड़ी देर बाद लखमीचंद सेठ के हृदय में एकदम से उजाला हुआ। उनका अंतर-वैभव खिल उठा। ओ-हो-हो! लखधीर सेठ को मुझ पर इतना भरोसा कि बिगड़े बेटे की देखभाल मुझे सौंप गए। बिगड़ी बाजी सुधारकर गाड़ी पटरी पर चढ़ाऊँ तो ही मेरा लखमीचंद, कोरे कागज पर तो बच्चा चित्रकारी करता है, लेकिन जो बिगड़ा हुआ सुधारे, वही मर्द होता है।

लखमीचंद सेठ ने मुनीम को हुक्म दिया, ‘प्रतिदिन सुबह हीराचंद को नकद सौ रुपया दे देना।’

रोज उठते ही हीराचंद को सौ रुपए मिलने लगे, फिर बाकी ही क्या रहा?

ऊँट था कि घूरे पर चढ़ा और बौना था कि गड्ढे में गिरा!

एक तो नटखट बंदर और वह भी शराब पिया।

हीराचंद तो मित्रों के साथ मिलकर नाश्ता-पानी उड़ाने लगा। दाँत टूटे तो कुत्ते का और चमड़ा फटे तो गधे का! मुफ्त में मिल रहा हो तो मित्रगण भी पीछे क्यों रहें? वे तो दूसरों के पैसों पर महफिल करने लगे।

हीराचंद ने कहा, ‘चलो, बहुत दिनों से जुआ नहीं खेला तो आज दिल खोलकर खेलें।’

ऐसा करते-करते एक सप्ताह बीत गया। एक दिन लखमीचंद सेठ ने हीराचंद से पूछा, ‘क्या हालचाल है?’

हीराचंद ने कहा, ‘मैं तो आनंद में हूँ। आपकी तरफ से रोज सौ रुपया मिल जाता है, फिर किस बात की चिंता-फिक्र?’

लखमीचंद सेठ को लगा कि ‘अच्छा, यह तो आसमान में उड़ रहा है, इसको तो कोई फर्क ही नहीं पड़ा!’

फिर बोले, ‘तू मेरी एक बात सुनेगा, मेरा कहा करेगा?’

‘आप जो कुछ भी कहोगे, उसे करना मेरा कर्तव्य है।’

‘तुम सब दोस्त मिलकर जुआ खेलते हो। तुम उन सबसे पूछो कि तुम कितने समय से जुआ खेलते हो? अब तक तुम कितना जीते, इतना पूछकर कल मुझे बताना।’

‘ठीक है। पूछ लूँगा। इसमें क्या है ?’

उस दिन हीराचंद ने दोस्तों से पूछा, ‘अरे, वो सारी बात छोड़ो। मैं पूछ रहा हूँ, उसका उत्तर दो कि तुम कितने समय से खलते हो?’

दोस्तों ने उत्तर दिया, ‘इसमें ही तो हमारा पूरा जीवन गया। सुबह से शाम तक हमारा काम ही यही है। बोलो, अब तुम्हें कुछ कहना है?’

‘अच्छा, सालभर चल जाए उतना मिलता है ?’

‘बचाने की तो बात ही क्या? जिस रास्ते आता है, उसी रास्ते चला जाता है ! हो तो हो, न हो तो एक कौड़ी भी न हो। ऐसा भी दिन आता है कि बीड़ी पीने के लिए जेब में चार पैसे भी नहीं होते हैं!’

दूसरे ने कहा, ‘हमसे पूछता है तू। तेरे पास कितना बचा है, उसकी तो बात कर भाई!’

‘मैं तो बरबाद हो गया। पिता की दसेक लाख की पूँजी थी, वह भी गँवा दी।’

‘यह तो होता रहता है। बहुत चिंता मत करना, भाई। नहीं तो दिमाग शून्य हो जाएगा।’

हीराचंद ने मन में विचार आया कि कुल मिलाकर इसमें किसी को कुछ लाभ नहीं हुआ। मैंने पिता की संपत्ति गँवा दी। उसके बदले कहीं धंधे में रुपया लगाया होता तो मेरी यह दशा हुई नहीं होती?

उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। उसे बड़ी पीड़ा हुई। उसने मन में गाँठ बाँध ली कि आज से कभी जुआ नहीं खेलेगा।

लेकिन उसे जब यह बात समझ में आई तब बहुत देर हो गई थी।

दूसरे दिन सुबह उठकर वह लखमीचंद सेठ का दर्शन करने गया। सेठ के आदेश अनुसार मुनीम उसे सौ रुपया देने लगा, तब उसने कहा, ‘आज तो पचास रुपया ही दो।’

लखमीचंद सेठ ने कहा, ‘क्यों भाई! आधी कटौती?’

‘काका, मैंने प्रतिज्ञा ली है कि अब जुआ नहीं खेलूँगा। जिस राह पर लुटा हूँ, उस राह पर कभी कदम नहीं रखूँगा। आपने जो प्रश्न पूछा था, वह प्रश्न मैंने सबसे पूछा। इस राह पर चलनेवालों का हालचाल मेरे जैसा ही है। किसी ने कुछ बना नहीं लिया। आज तक मैंने पिता और पत्नी की बात नहीं मानी, लेकिन अब मेरी आँख खुल गई है। जुआ में तो पांडवों ने आगे-पीछे कुछ सोचे बिना सबकुछ गँवा दिया और वनवास में दिन बिताने पड़े। काका, भला हो आपका कि आपने मुझे सोचने के लिए प्रेरित किया।’

लखमीचंद सेठ के मन में हुआ कि ‘पैसा खर्च करना व्यर्थ नहीं गया। वसूल हो गया। सौ में से एक पाया तो कहते हैं निन्यानबे की भूल! एक अवगुण तो टल गया न !’

ऐसा करते-करते एक सप्ताह बीत गया। लखमीचंद तो रोज रात को बन-ठनकर वेश्यागृह जाता। नाच-गान और मुजरा की मजा लेता। रंगीन रात शांत हो जाती। हीराचंद को मुफ्त का बकरा समझकर वेश्या जेब खाली कर देती।

एक दिन लखमीचंद सेठ ने हीराचंद से कहा, ‘भाई! तुम रात में वेश्यागृह जाते हो, उसके बदले सुबह के समय जाओ।’

हीराचंद तो एकदम सुबह लखमीचंद सेठ का मुँह देखकर, राम-राम करके सीधे वेश्यागृह चल पड़ा।

हीराचंद ने वेश्या को देखा तो मानो जीवित डायन ! गाल में गड्ढे। आँखें एकदम धंसी हुई। साही के काँटे जैसे सूखे केश। अस्त-व्यस्त वेश! हीराचंद तो उसे देखकर दो कदम पीछे हट गया।

उसे लगा, ‘यह वेश्या का रूप! इसके पीछे मैं लटू बन गया हूँ, यह तो रात की रंगीन रोशनी मोहित कर देती है। शृंगार करने पर तो बबूल का ठूठ भी खिल उठता है ! आज तक मैंने केशर छोड़कर पलाश का आनंद लिया है, इसकी अपेक्षा तो देवांगना जैसी, प्राण न्योछावर करने वाली मेरी घरवाली में क्या कमी है?’

उसकी आँख पर पड़ा परदा तुरंत हट गया। उलटे पाँव वह लौट पड़ा। वेश्या उसके सामने गिड़गिड़ाने लगी-

‘ऐ सेठ! आओ न आते ही क्यों लौट जा रहे हो? मेरे गले की कसम। मुझसे मिलते रहना। मेरी चाहत में क्या कोई कमी आ गई है?’

हीराचंद ने तो पीछे मुड़कर देखा ही नहीं। आज की घड़ी और कल का दिन। काटे कान आवे शान!

वेश्या से उसे सख्त नफरत हो गई। उसके हृदय में रेशम की गाँठ बँध गई और ऊपर से तेल के दो-चार बूंद गिर गए। जो टूट भले जाए पर खुलेगी नहीं। उसने निश्चय कर लिया कि ‘आज से वेश्या मेरी माँ-बहन।’

दूसरे दिन सुबह-सुबह हीराचंद ने लखमीचंद का मुँह देखा और राम-राम किया। नित उठकर पचास रुपया देनेवाले मुनीम से उसने कहा, ‘बस, आज तो पच्चीस रुपया ही दो।’

लखमीचंद सेठ ने कहा, ‘क्यों बेटा?’

हीराचंद ने कहा, ‘काका, बस साब, आज से वेश्यागृह नहीं जाऊँगा। मेरा भ्रम टूट गया है।’

‘अच्छी बात है भाई!’

ऐसा करते-करते एक सप्ताह बीत गया।

एक दिन लखमीचंद सेठ ने हीराचंद से कहा, ‘भाई! तुम सुबह-शाम होटल में नाश्ता-पानी करने जाते हो, इसके बदले एकदम दोपहर में जाओ और अंदर जाकर जरा देखना तो सही! भई, वहाँ किस तरह का खेल होता है।’

हीराचंद ने कहा, ‘ठीक है। इसमें क्या, आज दोपहर में जाऊँगा।’

हीराचंद तो रोज कंदोई के यहाँ जाता और बाहर की बेंच पर बैठकर पूरी, चाट-पकौड़ी वगैरह खाता। कभी अंदर की ओर नहीं गया था। सेठ का कहना मानकर आज उस ओर गया। गरमी की दहकती दोपहर। गरमी भी ऐसी कि रहा न जाए। कामगार आटा गूंथ रहे हैं। खुले बदन से पसीना टपक रहा है। जो उसके अंदर भी गिर रहा है। मुँह से लार भी गिर जाए! तो वह आटे के साथ गूंथ जाए। ये सब उसने अपनी आँखों से देखा। कभी-कभी तो उसमें नाक का पानी भी गिरे! भन भन करती मक्खियाँ उसमें दब जाती थीं, जिन्हें वे निकाल देते थे। हीराचंद को यह देखकर घिन चढ़ गई। उसे लगा कि ‘आज तक मैं ऐसा गंदा और मटमैला ही खाता रहा हूँ! इसकी अपेक्षा घर का भोजन क्या खराब है?’

उसने होटल का भोजन त्याग दिया। मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि ‘आज के बाद कभी भी होटल की सीढ़ियों पर पैर नहीं रखूँगा।’

प्रभात वेला में हीराचंद ने लखमीचंद सेठ का मुँह देखकर राम-राम किया।

मुनीम पच्चीस रुपया देने लगे तब उसने कहा कि ‘रहने दो। अब पैसा नहीं चाहिए।’

लखमीचंद सेठ ने कहा, ‘क्यों बेटा?’

‘बस, होटल के नाश्ता-पानी पर से अब मन उठ गया है।’

‘लो, ठीक हुआ! अब?’

‘अब, एक चोरी करने की बुरी आदत है।’

‘तो तुम ऐसा करो। राजमहल में जाओ और राजा के पलंग के नीचे पायों के नीचे लगे जेडरत्न निकालकर ले आओ। तभी तुम्हारी चोरी और चतुराई की परीक्षा होगी।’

‘अच्छा काका! आप जैसा कहो, मेरी तरफ से कहाँ न है। चोरी करना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है।’

घनघोर अँधेरी रात है। समूचा नगर निश्चिंत होकर नींद की गोद में खो गया है। कमजोर मनुष्य का कलेजा काँप उठे, ऐसी सरसराती हुई हवा चल रही है। उसी समय वणिक पुत्र हीराचंद राजमहल में सेंध लगाने के लिए तैयार हुआ। मुँह पर गमछा बाँध रखा है। हाथ में सेंध लगाने का औजार है। काँख में चंदनगोह दबाए हुए है। इस तरह वह राजमहल की तरफ चला जा रहा है।

ठीक उसी समय नगर के राजा अंधारपछेड़ा ओढ़कर नगरचर्चा करने निकले थे। राजा ने आवाज दी कि ‘अरे! कौन हो तुम?’

‘ये तो मैं चोर…लेकिन तुम?’

‘मैं भी तेरे जैसा ही! हम दोनों एक पंथ के पंथी।’

‘चलो, अच्छा हुआ। एक से भले दो। मुझे जरा बल मिलेगा। बोलो, कहाँ चोरी करेंगे?’

‘तू जहाँ कहे।’

‘मारो तो मीर मारो। बेचारे फकीर को क्यों हैरान करें? चलो, आज तो राजमहल में चोरी करें।’

‘चलो फिर।’

पिछली सीमा से होते हुए वे दोनों राजमहल की तरफ चल दिए।

गढ़ के दरवाजे पर देखा तो ठंड में चौकीदार टाँग बोरकर नाक के नगारे बजा रहे थे! दोनों दीवार कूदकर उस तरफ गए।

हीराचंद ने राजा से कहा कि ‘तुम बाहर ध्यान रखना, मैं राजमहल में घुस रहा हूँ।’ ऐसा कहकर उसने गढ़ की दीवार पर चंदनगोह डाल दिया, फिर तो देखते ही देखते किले के ऊपरी भाग पर पहुँच गया। राजमहल में पहुँचकर जगमगाते झुम्मर के उजाले में देखा तो पलंग एकदम खाली! उसे लगा कि ‘चलो, अच्छा हुआ, जिसका डर था, वह टल गया।’

पलंग के पाए के पास जाकर, धरती पर कान लगाकर टकोरा किया तो वहाँ से लक्ष्मी की पुकार सुनाई दी, ‘मुझे बाहर निकाल, मुझे बाहर निकाल!’ तुरंत औजार की मदद से चारों पायों से चार जेडरत्न निकाल लिये। जेडरत्न में से चमकदार प्रकाश फैलने लगा। चारों जेडरत्नों को कमर में बाँधकर तेज गति से नीचे उतर गया ! मानो कहीं गया ही न हो।

राजा ने कहा, ‘लाया?’

हीराचंद ने कहा, ‘हाँ।’ ऐसा कहकर चारों जेडरत्नों को कमर में से बाहर निकाला। राजा के हाथ में जेडरत्न रखते हुए बोला, ‘लो, अपने हिस्से के दो रत्न।’

हीराचंद के कंधे पर हाथ रखते हुए राजा ने कहा, ‘शाबाश! रंग है जवान, तेरी विद्या का! हिम्मत की कोई कीमत नहीं होती। सच बोलने के कारण मेरे मन में तुम्हारे लिए सम्मान का भाव उत्पन्न हो रहा है।’

फिर दोनों अपनी-अपनी राह चले गए।

प्रभात की वेला में हीराचंद ने लखमीचंद सेठ का मुँह देखकर, राम-राम करके उनके हाथ में दोनों जेडरत्न रख दिए।

लखमीचंद सेठ ने कहा, ‘चार जेडरत्न के बदले दो ही क्यों?’

‘रास्ते में दूसरा एक हिस्सेदार मिल गया था, उसे दे दिया।’

‘ठीक!’ ऐसा कहकर दोनों जेडरत्न ठीक से रख दिए।

अब इस घटना से राजमहल में हो-हल्ला मच गया। वायुवेग से नगर में बात फैल गई कि राजमहल में चोरी हो गई। चोरी की आड़ में मंत्री ने पिछले दरवाजे से तिजोरी खाली करके सारी दौलत अपने घर पहुँचा दी, फिर घोषणा कर दी कि ‘चोर ने तो पूरी तिजोरी साफ कर दी है।’

राजा तो शांत मन से सुनते रहे और अंदर-ही-अंदर आगबबूला होते रहे।

चौकीदार और सिपाही-सबने चोरी का माल पकड़ने के लिए खूब प्रयास किया। राज्य के श्रेष्ठ गुप्तचर भी हार मान गए, लेकिन पानी मटमैला ही हुआ।

और चोरी की बात पर गाँव के लोग आपस में तरह-तरह की खट्टी-मीठी बातें करने लगे-

‘अरे! गजब का जानकार था ! जब राजा के पलंग के पायों के नीचे से जेडरत्न निकाल ले जाए तो यह बहुत बड़ी बात कहलाएगी!’

‘लेकिन चौकीदार कहाँ बैठे रहे होंगे?’

‘चौकीदार बैंगन तौल रहे होंगे।’

और फिर तो खट्टी-मीठी बहुत सी बातें हुईं। उस बात को यदि चौकीदारों ने सुना तो खड़े-खड़े जल गए होते।

राजा ने सोचा कि ‘चोर सच्चा है। मेरे हिस्से के दो रत्न मुझे देकर गया है। हिम्मतवाला और बहादुर है। ढिंढोरा पिटवाऊँ तो शायद हाजिर हो जाए, ना नहीं कहा जा सकता।’

राजा ने सारे नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि ‘जेडरत्न का चोर हाजिर होगा तो राजा द्वारा उसे अभयदान है।’

लखमीचंद सेठ दो जेडरत्न और हीराचंद को लेकर दरबार में हाजिर हुए।

राजा ने कहा, ‘बनिया का बेटा ऐसे काम में लग गया है ?’

लखमीचंद ने जड़ से लेकर चोटी तक की सारी बात की। बात सुनकर राजा आश्चर्यचकित हो गया !

फिर राजा ने अपने मंत्री को बुलाया। राजमहल में से कितने की चोरी हुई, सारे सच-झूठ की परख हीराचंद के सामने हुई। हीराचंद ने तो चार जेडरत्न ही चुराए थे तो तिजोरी एकदम कैसे खाली हो गई?

राजा ने मंत्री के घर की तलाशी करवाकर चोरी का सारा माल पकड़वा लिया। राजा ने मंत्री से कहा,

‘समूचा निगल जाना अच्छा लगा था ! क्यों?’

फिर मंत्री का मुंडन करवाकर, चूना पोतवाकर, गधे पर उलटा बैठाकर भगा दिया।

राजा ने हीराचंद से कहा कि ‘बनिया बिना तो लंका के राजा रावण का राज चला गया। मुझे तो तुम्हें मंत्री बनाना है।’

हीराचंद की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उसने कहा कि ‘सारे यश के भागी लखमीचंद सेठ हैं। मेरी बिगड़ी बाजी इन्होंने सुधारी है। ऐसा कहकर सेठ के पैरों में झुक गया।

-जोरावर सिंह जादव

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments