Kachchh Ki Saat Beesee Satiyan : Lok-Katha (Gujrat)
व्रजवाणी की अहीरिनियाँ ढोलकिया के ढोल पर मतवाली हुई थीं। ढोल पर ढोलकिया के हाथ की थाप पड़ती कि अहीरिनियों का हृदय प्रसन्न हो उठता। गोकुल की गोपियाँ जैसे कन्हैया की बंसी पर संमोहित थीं, वैसे ही व्रजवाणी की अहीरिनियाँ ढोलकिया के ढोल की दीवानी थीं। कान में ढोलक की आवाज पड़ते ही उनका हृदय बेकाबू हो जाता। गहरी नींद में भी वे चौंक कर जाग उठतीं। वे रोते हुए बच्चों को छोड़कर भी एक ही साँस में उस ढोल बजानेवाले के पास पहुँच जाती थीं। ढोलक पर बजती डंडी की कड़कड़ाहट कान में आते ही गाय-भैंसों को दुह रही अहीरिनियाँ दूध का बरतन जमीन पर पटककर भागने लगतीं। संगीत के तान में निमग्न बनी ब्रजवाणी की वनिताओं को ढोलकिया के ढोल की कुछ अद्भुत रंगत लगी थी। जो जहाँ सुनती, वही रास के रंग में आ जाती। एक ही चोट पर जब वे ढोलकिया के पास पहुँचकर रास की मौज में आतीं, तभी रुकतीं।
ढोलक को बजानेवाला ढोलकिया व्रजवाणी गाँव का एक काछी था। ढोलक की शिक्षा उसको बचपन से ही मिली थी। वह भी रात-दिन ढोल के ताल में ही तल्लीन रहता। उसकी साधना भी अद्भुत थी। उसने अपना तमाम जीवन ढोल की तान पर कुर्बान किया था। बचपन से ही पूरे संसार में उसका एक ही मित्र था और वह उसकी ढोलक। ढोल के सिवाय उसका कोई सगा-संबंधी भी नहीं था। उसके विचार से उसके हाथ में ढोल बजाने वाली डंडी राजदंड के समान थी। ढोलक से वह भाँति-भाँति के नाद निकाल सकता था। वह हँसता तब उसका ढोल भी हँसता और वह रोता तब उसका ढोल भी रो पड़ता। उसकी डंडी जब ढोल पर पड़ती, तब वह पूरी दुनिया को भूल जाता। वह आवाज की दुनिया में ही मस्त रहता था। उसकी मस्ती अद्भुत थी। विश्व के विलास और वासनाएँ उसको स्पर्श भी नहीं कर सकते थे। इस जगत् की किसी भी वस्तु के प्रति उसे आकर्षण नहीं था। हाँ, केवल उसके ढोल के सिवाय। वह जगत् में रहते हुए भी उससे परे था। वह एक योगी जितना ही उदासीन था। उसकी ढोल में ही उसकी तमाम संपत्ति का समावेश हो जाता था। ढोलक और ढोल की डंडी के सामने उसके विचार से पूरी दुनिया की दौलत तुच्छ थी। वह था तो काछी, परंतु एक त्यागी था, वैरागी था। उसका ढोल उसका भगवान् था और वह उसका परम भक्त था। ढोल भगवान् का भजन करने में वह कभी थकता नहीं था, ऊबता नहीं था। उसकी पूरी दुनिया उसके ढोल में समा जाती थी।
और उसके ढोल में जो महाशक्ति लहरा रही थी, वह यह थी कि ढोल के ध्वनि के पीछे उसके त्याग का अद्भुत बल खड़ा था। उसकी डंडी में अनासक्ति योग की ताकत थी। इस अमोघ शक्ति ने ही व्रजवाणी की अहीरिनियों को मतवाली बना दिया था।
अक्षय तृतीया के पवित्र त्योहार की मनोहर सुबह थी। व्रजवाणी के सुंदर सरोवर के किनारे खड़े बरगदों की ऊँची–ऊँची डालियों पर झूले डालकर गाँव के तमाम युवा और छोटे-बड़े बच्चे आज झूलने का आनंद उठा रहे थे। अक्षयतीज, अर्थात् मानो झूला झूलने का ही त्योहार है। ग्राम्य प्रजा के लिए अक्षय तीज एक महान् उत्सव माना जाता है। इस समय वसंत ऋतु की बहार होने से लोक हृदय भी आनंद सागर में निमग्न हुए होते हैं। उस दिन तो गाँव मानो मतवाला हो उठता है।
व्रजवाणी, यह कच्छ के वागड विभाग का एक छोटा सा गाँव है। आज से पाँच सौ वर्ष पहले व्रजवाणी में आहिरों की पर्याप्त आबादी थी। आहिर लोग गायों, भैंसों इत्यादि पशुधन के मालिक थे। उनके यहाँ घी-दूध की तो धारें उड़ती थीं। घी, दूध और मक्खन के नियमित सेवन से उनके शरीर मांसल और मस्त बने हुए थे। उनके शरीर में उछलती हुई मस्ती आज अक्षय तीज के दिन बाहर छलकती हुई स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। कुछ युवक मल्ल कुश्ती लड़ने में मशगूल थे। कुछ सिंह और चीते की तरह एक-दूसरे से भीड़कर पंजा लड़ाने के दाँव-पेंच आजमा रहे थे। कुछ ऊँट, घोड़ा और बैलगाड़ी की दौड़ में दीवाने हुए थे। कुछ भिन्न–भिन्न प्रकार की कूद लगाने की शर्तें लगा रहे थे। आज पूरा व्रजवाणी गाँव आनंद के सागर में झूल रहा था। गाँव के सिवान में मानो एक बड़ा मेला सा लगा था। छोटे-बड़े तमाम आदमी अपने हृदय का आनंद नाना प्रकार से व्यक्त कर रहे थे। आज लोगों के उत्साह का पार नहीं था।
अक्षय तृतीया आगे आनेवाले वर्ष का शकुन देखने का दिन है। आज भोर में सूर्य उगने से पहले, गाँव के चतुर आहिरों ने सिवान में जाकर वायु अवलोकन से अगले वर्ष में उत्तम वर्षा का शुभ शकुन देख लिया था। इस खुश खबर की बधाई घर-घर पहुँच गई होने से लोगों का उत्साह आज समाता नहीं था।
आज पूरे गाँव के आहिर हमेशा की तरह मीठे नए पके गेहूँ की रोटी और गोरस का भोजन करके गाँव से बाहर निकल पड़े थे। सभी लोग आज के उत्साह का आनंद उठाने को आतुर थे। एक ओर आहिर युवक अलग–अलग प्रकार की मर्दानगी का खेल–खेल रहे थे तो दूसरी ओर अहीरिनियाँ रास का मौज उड़ा रही थीं।
आज तो ढोलकिया भी कुछ अद्भुत ऊधम मचाए था। उसके ढोल की थाप अहीरिनियों के दिल को चीरकर आर-पार निकल जाती थी। उसके डंडी की कड़कड़ाहट दसों दिशाओं को घुमा रही थी। व्रजवाणी की अहीरिनियाँ आज ढोलकिया के ढोल पर मस्तानी बनी हुई थीं। उन्हें ढोल की थाप, जितने कदम उठवाती उतने ही कदम वे उठाती थीं। उनकी गति का वेग भी ढोलक के ताल के अनुरूप ही बढ़ता व घटता था। ढोलक की डंडी कभी चलती चाल पकड़ती और कभी मंद पड़ जाती थी। रास करती हुई रमणियों की गति भी ढोलक की ध्वनि का अनायास ही अनुकरण कर रही थी। ढोल की थाप जब गोल घूमने की ध्वनि पकड़ती, तब तमाम रास करनेवाली रमणियाँ उसके साथ गोल-गोल घूम जातीं। हाथीदाँत के मोटे चूड़ेवाले उनके हाथ की तालियाँ भी ढोलक की आवाज के साथ संगत करती हुई दूर-दूर तक सुनाई देती थीं। उनके पैर की थिरकन ढोल की डंडी के अनुसार ही थिरकती। पैर में पहने हुए कंबी-कडुला का मीठा झंकार वातावरण में कुछ अजीब माधुर्य घोले जा रहा था। अहीरिनियाँ आज ढोलकिया के ढोल पर मंत्रमुग्ध हो गई थीं। दीपक के आसपास घूमता हुआ पतंगा जैसे दीवाना बनता है, उसी तरह से अहीरिनियाँ ढोल के आसपास दीवानी बनी हुई थीं। अहीरिनियाँ ढोलकिया पर झूल रही थीं, ढोलकिया ढोलक पर झूल रहा था। दुनिया की अन्य किसी बात का यहाँ अस्तित्व नहीं था। आज जंगल के वृक्ष भी मानो यहाँ रास का मौज देखने में लीन हुए थे। लावण्यमयी युवा आहिर सुंदरियों की सुंदर देह कलियाँ ढोलकिया के अगल-बगल घूम-घूमकर नृत्य कर रही थीं। भौंरे कमल पुष्प के आसपास गुंजारव कर उठते हैं, उसी तरह से व्रजवाणी की अहीरिनियाँ आज ढोलकिया के ढोल के आसपास मधुर गुंजारव कर रही थीं। उनके कदमों में आज बिजली जैसी तरलता आ गई थी। उनके मुख पर मानो आज चंद्रमा की चाँदनी अपने शीतल मधुर तेज के साथ सवार थी। तारे-सितारे वाले मोटे, परंतु स्वच्छ वस्त्र इन सुंदरियों के सौंदर्य को अनेक गुना चमका रहे थे। व्रजवाणी गाँव के सुंदरियों की सुंदरता आज मानो अभिवृद्धि पा रही थी।
गाँव के आहिर युवक भी अपने-अपने खेलों को छोड़कर रास की मौज देखने इस रमणीवृंद के पास आ पहुँचे थे। राह चलते यात्री भी अपने कामों को भूलकर घड़ी भर यहाँ रुक जाते थे।
साँझ हो गई। गाय-भैंसें चरकर सिवान से वापस आईं। यात्री बिखर गए। तमाम आहिर भी अपने-अपने घर चले गए। बचीं मात्र रास सागर में उन्मत्त बनी रास-रमणियाँ। ढोल की तान पर तल्लीन हुई आहिर सुंदरियाँ पक्षी-वृंद की भाँति तीक्ष्ण स्वर कंठ से जंगल और झाड़ी को गुँजायमान करते हुए रास की मौज उड़ा रही थीं।
थोड़ा अधिक समय बीता। गाय-भैंसों को दुहने का समय भी हो गया। बछड़े बोलने लगे। पाड़े चिल्लाने लगे। गाय-भैंसें भी अकुलाकर पुकारने लगीं। ऊँची आवाज में गृह-स्वामिनी को बुलाती हुई ‘बाँ-बाँ’, ‘भाँ-भाँ’ करने लगीं, परंतु उनके पीठ पर हाथ फेरनेवाली और दुहनेवाली आहिर युवतियाँ तो आज रास की रस-मस्ती में थीं। वे रास में इतनी मस्त हो गई थीं कि पशुधन के साथ अपने पेट के बच्चों को भी भुला बैठी थीं।
सूरज डूब गया था। वैशाखी तृतीया की बंकिम चंद्ररेखा आकाश की घटा में चमक उठी और वन की वनदेवियों सी आहिर रमणियों को रास खेलते देखने के लिए घड़ी भर आकाश में ठहर गई।
रसरंग में सराबोर इन कोकिल कंठी कामिनियों के रंगराग का तुरंत अंत न आता जानकर आकाश की चंद्ररेखा भी अपनी मंद चाँदनी को बटोरकर अंततः चलती बनी। रात के भोजन का समय भी बीत गया। रोते हुए बालक रोते-रोते आखिरकार भूखे-प्यासे ही सो गए, फिर भी एक आहिर सुंदरी रास की रंगत में से सिर भी उठा नहीं सकी। जंगल को मंगल बनानेवाली ये रसरमणियाँ आज मानो सारे जगत् को भूल गई थीं। आज ढोली के ढोल ने उनपर कुछ जादुई भस्म छाँट दी थी। व्रजवाणी का ढोलकिया आज व्रज बिहारी कान्हा जैसा मोहक बना हुआ था। उसकी शक्ति आज चमक उठी थी, खिल उठी थी। इस जादूगर ने आज व्रजवाणी की मनोहर मुग्धाओं पर अद्भुत जादू किया था। उस जादू के जोर से तमाम आहीरिनियाँ आज अपने घर और पतियों को भी भूल गई थीं।
जैसे–जैसे रात बढ़ती जा रही थी, वैसे–वैसे ही ढोलकिया के ढोल में कुछ और मिठास व मोहिनी का आविर्भाव होता जा रहा था। आज इस मिठास पर व्रजवाणी की अहीरिनियाँ भ्रमरी की भाँति घूम रही थीं।
ढोलकिया स्वयं भी आज कुछ अद्भुत तान में आ गया था। वो स्वयं खुद को भूल गया था। विश्व के तमाम व्यवहार आज उससे दूर हो गए थे। ढोलकिया और ढोल दोनों एक-दूसरे में एकाकार हो गए थे।
अहीरिनियों की राह देख-देखकर व्रजवाणी के आहिर आखिरकार थक गए। कुछ गाय-भैंसों को अपने ही हाथों दुहने लगे। कुछ लोग, जो दोहन कला से अज्ञात थे, वे साँझ से ही किसी दुहनेवाले की खोज में घूम रहे थे। ‘एकहत्थी’ गाय-भैसें तो अपने गृह-स्वामिनी के सिवाय सबका सत्कार अपने सींगों से करती थीं। उनके सामने आने की भी किसी की हिम्मत नहीं होती थी। व्रजवाणी के घर-घर में आज अराजकता और अव्यवस्था का दर्शन हो रहा था। घर की संपूर्ण व्यवस्था को जानने वाली चतुर अहीरिनियाँ आज किसी नई दुनिया में ही विहार कर रही थीं।
कुछ आहिर अपनी गृह-लक्ष्मियों को बुलाने के लिए गाँव के सिवान तक दौड़ गए थे, परंतु ढोलकिया के ढोल पर डोल रही अहीरिनियाँ आज कहाँ किसी की माननेवाली थीं। उन्हें बुलाने गए आहिर आखिरकार थककर मुँह लटकाए वापस आ गए।
आधी रात बीत गई, फिर भी यहाँ तो वही घड़ी चल रही थी। सिवान में ढोलकिया का ढोल उसी तान में बज रहा था। यहाँ के अलौकिक आनंद पर अपने आपको भी न्योछावर कर देने के लिए मानो अधीर हुई हों, ऐसी अहीरिनियाँ आज ढोलकिया के ढोल पर एक ही ताल में घूम रही थीं। आत्मा के इस अद्भुत आनंद को त्यागकर घर की झंझट में पड़ने का खयाल किसी को नहीं आया। यहाँ तो अभी वही चल था। व्रजवाणी ने तो आज मानो व्रजभूमि का ही अवतार धारण किया था।
गोकुल का कन्हैया मानो ढोलकिया बनकर व्रजवाणी में आ पहुँचा हो, ऐसा क्षण भर प्रतीत होता था। उसने आज व्रजवाणी की अहीरिनियों को गोकुल की गोपियों की भाँति मतवाली बनाया था। आज यहाँ रात-दिन का भी किसी को होश नहीं था। मुरली की मनोहर नाद पर जैसे मणिधर होश खोकर डोलने लगता है, उसी तरह से व्रजवाणी की अहीरिनियाँ ढोलकिया के ढोल पर डोल रही थीं।
प्रभात का उजास पूर्वाकाश में अपना प्रकाश फैलाने लगा, फिर भी अहिर रमणियों का उत्साह रंचमात्र भी कम नहीं हुआ हो, ऐसा लगता था। उनकी तीक्ष्ण आवाज गगन को गुँजायमान करती हुई दसों दिशाओं में फैल रही थी।
सुबह होने में अब बहुत देर नहीं थी। गाय-भैंसों को फिर से दूहने का समय हो गया था। बछड़े और पाड़े फिर से बोलने लगे। माता को पुकारकर रोते हुए सो गए बच्चे पुनः जाग्रत् होकर फिर से एक बार रुदन करने लगे। व्रजवाणी के घर-घर में फिर एक बार चीख-पुकार मची।
आहिरों का धैर्य अब छूटने लगा था। घर की अव्यवस्था की ऊबन अब क्रोध का रूप ले रही थी। उनके मन में अब शैतान ने प्रवेश किया। उनकी आँखें लाल हो गईं। द्वेष और वैर का उफान उनके हृदय में उठने लगा। व्रजवाणी की गृह-रानियाँ आज उनकी न होकर ढोलकिया की हो गई हों, ऐसा उन्हें स्पष्ट दिखने लगा। ईर्ष्या की आग उनके रोम-रोम में व्याप गई।
तमाम आहिर आज बिल्कुल सुबह ही एकत्र हो गए थे। कुछ तो पूरी रात के जागरण से आँखें लाल करके आए थे। कुछ अपने बच्चों को पूरी रात समझा-बुझाकर परेशान हो गए थे। यह ढोलकिया उन्हें आज ‘ढाई आखर’ लगा। उन्हें अपनी स्त्रियाँ इस ढोलकिया के पीछे निपट अंधी हुई लगीं। इस ढोलकिया के साथ अब कैसे पेश आना है, इस विचार में वे सभी जुट गए थे। उन्हें लगने लगा कि यह जादूगर उनकी भोली भामिनियों को भरमा रहा है। आखिरकार विचार करके वे सभी एक निर्णय पर आ गए। निर्णय भयंकर था। ढोलकिया का कत्ल कर देना है।
सुबह का उजाला और अधिक बढ़ता जा रहा था। वृंदावन में रास खेलती गोपिकाओं की भाँति व्रजवाणी की अहीरिनियों के दर्शन करने के लिए सूर्य भगवान् त्वरित गति से ऊपर और ऊपर चढ़ते जा रहे थे। प्रभात के गायक वनपंछी भी अप्सराओं की तरह अहीरिनियों के मधुर स्वर के साथ अपने स्वर की कुछ क्षण स्पर्धा करके आखिर हार कबूल करके दूर-दूर के वन प्रदेश में उड़ गए थे। सरोवर का नीर शांत हो गया था। पवन भी स्थिर हो गया था। वनराजी के वृक्ष भी इस स्वर्गीय संगीत का श्रवण करते हुए अपने मस्तक को मंद-मंद गति से डुलाते हुए आफरीन पुकार रहे थे। तमाम प्रकृति इस दिव्य दृश्य का दर्शन करने में एकरस बन गई थी। इधर ढोलकिया ढोल और अहीरिनियाँ भी एकरस और एकाकार थे।
इसी समय कुछ आहिर युवक अपने हाथ में तलवार भाँजते हुए आ गए थे। उनकी तरफ एक दृष्टि भर डालने की फुरसत यहाँ किसी को कहाँ थी? ढोल के ढमढमाने में मस्त ढोलकिया अपनी तान में ढोल पर डंडी की कड़कड़ाहट करा रहा था। बाँसुरी के सुमधुर सरोद पर जैसे मृगी डोलती रहती हैं, उसी तरह से ये रमणियाँ ढोली के ढोल पर डोल रही थीं।
आहिर युवक अपनी नंगी तलवार हाथ में लिये बिल्कुल नजदीक आ गए, फिर भी किसी ने उनकी ओर आँख तक नहीं उठाई। ये पूरी रास मंडली, जहाँ अपने आप को ही देखना भूल गई थी, वहाँ दूसरे को देखने के लिए कौन खाली था? ढोलकिया का मस्तक ढोल की ताल में एकरस हो झूल रहा था।
आहिर युवक अवसर देख, ढोलकिया के एकदम समीप पहुँच गए। एक ही झटके में उन्होंने ढोल पर झूल रहे ढोलकिया के मस्तक को उड़ा दिया।
आनंद की तरंगें उछाल रहे ढोलकिया के मस्तक से अब उष्ण रक्त की तरंगें उछलने लगीं। मस्तक कट जाने पर भी ढोलकिया के हाथ की डंडी अभी भी तालबद्ध ढोलक पर पड़ रही थी, लेकिन यह क्रिया बहुत देर तक नहीं टिक सकी। थोड़ी ही देर में उसका हाथ और हाथ की डंडी ताल का नियम चूक गए। ताल में भंग पड़ते ही अहीरिनियाँ ने एक साथ बेताल होते ढोलकिया पर नजर डाली, परंतु यहाँ ढोलकिया कहाँ था? ढोलकिया का मस्तक रहित धड़ अभी भी जैसे-तैसे बैठा था। उसके हाथ की डंडी अभी भी ढोल बजा रही थी, पर अब उसकी आवाज का ठिकाना नहीं था। ढोलकिया का धड़ भी गिर पड़ा।
आकाश में से मानो बिजली गिरी। पर्वत के किसी उन्नत शिखर पर मानो वज्र प्रहार हुआ। आहिर युवतियाँ पत्थर की पुतलियों की भाँति स्तब्ध हो गईं। कोमल कदलियों का कदली वन भयंकर तूफान के वेग से टूट जाता है, उसी तरह एक सौ चालीस आहिर युवतियाँ पृथ्वी पर गिर पड़ीं। रंग में भंग पड़ा।
समस्त प्रकृति ने एक भयानक निश्वास छोड़ा। सूर्य भगवान् भी यह भयंकर कृत्य देखकर मानो कोपायमान हो उठे हों, इतने उग्र दिखने लगे। जंगल के वृक्ष भी अपने पर्णरूपी अश्रु पृथ्वी पर गिराते हुए मानो रो उठे हों।
ढोलकिया के ढोल पर पूरी रात झूमनेवाली अहीरिनियाँ मूर्च्छित होकर बहुत देर तक जमीन पर पड़ी रहीं। जाग्रत होते ही ढोलकिया का रुधिर से छलकता धड़-मस्तक का भयानक दृश्य फिर उनकी आँखों के सामने घूम गया। मस्तक रहित धड़ के हाथ में पडी हुई डंडी अब भी रह-रह के ऊपर नीचे गिरती थी। दूसरा हाथ मानो ढोलक पर थाप मार रहा हो, इस प्रकार हिल रहा था। दुनिया से दूर हुई ढोलकिया की आत्मा अभी भी मानो ढोल बजा रही हो, ऐसा उसके बारंबार फड़कते हुए हाथों से पता चलता था।
अहीरिनियों के अंतरपट पर प्रेम का मतवाला रंग नहीं चढ़ा था। उनका हृदय तो स्नेह के सच्चे रंग में रँग गया था। जिसकी ढोलक पर जीवन भर आनंद उठाया हो, जिसकी ढोल में दुनिया के तमाम दुःखों को दूर करने की शक्ति थी ऐसे ढोलकिया को इस परिस्थिति में छोड़कर व्रजवाणी की कोई भी अहीरिन घर के जंजाल में पड़ने को तैयार नहीं थी। ढोलकिया की यह मौत उनके हृदय में घातक घाव कर रहे एक भाले की भाँति अखर रही थी। अहीरिनियों के आँखों से अब आठ-आठ आँसू निकल पड़े। ढोलकिया उनके दिल के जख्मों को सुखाने वाले वैद्यराज के समान था, उसके बिना उनका जीवन उन्हें शून्य लगने लगा।
अब इन सात बीसी सतियों के शरीर पर सत सवार हुआ। इन तमाम अहीरिनियों ढोलकिया के साथ अग्निस्नान करने का दारुण निर्णय कर लिया। ब्रजवाणी की बालाएँ, भोली अबलाएँ आज पाषाण की भाँति कठोर हो गईं।
उतावले अहीरों को अब अपनी गलती समझ में आ ही गई, परंतु अब तो बहुत देर हो गई थी और गलती समझने से कहीं थोड़े सुधरने वाली थी! अब तो हर युक्ति हाथ से निकल गई थी। अब सतियों पर सवार सत उतर जाए, इस तरह की आशा ही नहीं थी।
गाँव के सिवान में आए सरोवर के किनारे उस रास खेलनेवाले मैदान में ही बड़ी-बड़ी चिताएँ लग गईं। अग्नि प्रगट की गई। एक सौ चालीस, अर्थात् सात बीसी आहिर सुंदरियाँ अपने पवित्र प्रेमपात्र ढोलकिया सहित अग्निदेव की गोद में समा गईं—भस्मीभूत हो गईं।
व्रजवाणी गाँव कच्छ-वागड में गेंडी से बेला जानेवाले मार्ग में रण के किनारे स्थित है। यहाँ सरोवर के पास आए मैदान में ऊँचे-ऊँचे स्तंभ आज भी खड़े दिखते हैं। बीचोबीच ढोल के निशानवाला ढोलकिया का स्तंभ सबसे ऊँचा खड़ा है। उसके चारों तरफ आहिरिनियों के स्तंभ किले के कँगूरे की भाँति विद्यमान हैं। यह स्थान आज भी किसी भस्मीभूत हुए स्नेहसदन सा प्रतीत होता है। आहिरों का पुराना व्रजवाणी गाँव तो नष्ट हो चुका है। आज का व्रजवाणी नया बसाया गया है। यहाँ आज एक भी आहिर बस्ती नहीं है। आहिर व्रजवाणी का पानी अग्रा करके यहाँ से पलायन कर गए हैं। ये ‘प्रांथणिया आहिर’ कहलाते हैं। इसका कारण यह है कि व्रजवाणी वागड के प्रांथण विभाग में स्थित है। ढोलकिया के स्मारक पर संवत् 1511 के वैशाख शुक्ल 4 की तिथि पढ़ी जा सकती है। यह स्थान आज ढोलकिया के नाम से प्रसिद्ध है।
(साभार : दुलेराय काराणी)