Wednesday, November 29, 2023
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नकर छकर-हेंकर बाज : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Nakar Chhakar-Henkar Baaj : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

एक देश में पंडित रहता था। काव्य, पुराण, ज्योतिष आदि सारी विद्या में पारंगत। मुँह खोलते ही श्लोक झरते, पर केवल पढ़ाई से हर काम न चले। दुनिया में चलने को कुछ और भी चाहिए। पंडित किताब लिये बैठे रहें। कभी दर्शन श्लोक लिख लें। झूठ कभी न बोले। नित का संसार कैसे चले, यह कभी न सोचते। फलतः कभी-कभी चूल्हा खाली रह जाता। इधर काव्य पुराण का बोझ बढ़ा। संसार उतना नीचे जाता।

पंडिताइन का मन दुःखी। चटशाल का द्वार न देखने वाले घोर मूर्ख सुख-चैन से हैं। उनके घर पर बरतन-भांडे सब खाली हैं। औरतें देह पर अलंकारों से भरी। बच्चों के ठाट-बाट का कहना क्या? और यह पढ़ाई कर घर न भरा। इलाके में कोई पंडित नहीं, पर एक कौड़ी के लायक भी नहीं।

क्रमशः पेट की आग से पंडित जलने लगे। रोज दरबार जाते। पंडित सभा में बैठते तो दरबारी जन हँस पड़ते। रोज सोचते, राजा को अपनी दशा कहूँगा, पर जबान न खुलती। गले से जबान निकले तो कुछ कह पाए। राजा उनका दुःख कैसे जाने? बाप के जमाने का कीड़े खाया पाटवस्त्र पहनते, रुपए जितना बड़ा टीका लगाते, श्लोक का बंडल काख में दबा जैसे बेफिक्री में चलते, पर खाली हाथ हिलाते लौट आते।

उसी गाँव में एक आदमी और था। उसकी पढ़ाई खाली, मगर अकल थी भरपूर। नाम था नकड़ी छकड़ी।

फाजिलिया…

आकाश से तारे तोड़कर लाने की बातें करे। बहुत बोलता। चौड़ी छाती भरपूर। मुँह खोलता, रहस्य की बात तो वह ही कहता। हँसा-हँसाकर पेट दुखा दे। रोज दरबार जाता। किस दिन क्या बात, जो राजा को न भाए, वह जानता। खुश हो राजा रुपए-पैसे देता। पंडित रोज सूखे मुँह लौटते और वह अंटी भर लाता।

उसकी मोटी अंटी देख पंडित ने अपना दुःख सुनाया। घर में दाना भी नहीं। पंडिताइन ने खूब सुनाया था।

उसने कहा, “पंडित, रुपया तो हाथ का मैल है। कोई कमा ले? राजा तो वैसे इकरंगे हैं। जो समझे, वही। पंडित इतना विचार क्यों? कोई अनोखी बात कह मन बहला दो। भला वह क्या अमानुस है?”

पंडित ने कहा, “अरे! मुझे ये बातें आतीं तो तुझे क्यों पूछता? मेरी पढ़ाई बेकार है। दो टुकड़े काठ के बराबर नहीं। संसार की नाव मझदरिया में डूबने को है।”

वह बोला, “पंडित कुछ झूठ बोलना होगा।”

पंडित, “ओ हो, राम-राम! वह मुझसे न कहा जाएगा। झूठ की कमाई से तो भूखों मरना भला।”

वह बोला, “जी, मेरी सुनें। खाँटी सच से दुनिया न चले। धर्मराज युधिष्ठिर ने भी समय आने पर झूठ कहा। पैसों के संग झूठ मिला है। दुनिया में जीना है तो जरा झूठ कहना होगा, वरना आपको दसा भोगनी पड़े।”

पंडित, “तो तू बता; क्या कहना होगा?”

वह बोला, “कल दरबार में देर से आना। राजा कुछ कहें तो कहना—आकाश में बिल्ली मिली। चिल्लाती जा रही थी, उसे देखता रहा।”

अगले दिन सूँघनी नाक में लेते-लेते टहलते हुए देर से पहुँचे।

मंत्र-सा गुनगुनाते रहे। अनमने थे।

राजा, “पंडितजी, आज विलंब कैसे?”

पंडित ने तुरंत कहा, “क्या कहूँ? आकाश में बिल्ली चिल्लाती जा रही थी।”

राजा गुस्सा में भरे। पंडित को सिर से पाँव तक देखा। कहा, “पंडित, यह गप्प का अड्डा नहीं। राजसभा है। भाँग ज्यादा पड़ गई? दिमाग में न चढ़े बिना ऐसी बात नहीं करता। कोई पंडित को पागल गारद में रखे।”

अब पंडित की अकल गुम। उस बड़बोले से जो सुना, वह कहा, आगे? न्याय, दर्शन, मीमांसा, सांख्य, सब व्यर्थ। आँख से आँसू बह गए।

हाथ में हथकड़ी, पाँव में बेड़ी डाल लेने के लिए कोतवाल तैयार था। तभी बड़बोला आया।

“ये क्या, पंडित को दंड क्यों? इतने बड़े पंडित को सजा? ये साक्षात् युधिष्ठिर! उनकी ये दशा! सत्यवान को दंड दिए धर्म न हो। ये राज न रहेगा! तीन टाइम में एक समय उपवास रहकर भी पंडित ने कभी जबान नहीं खोली। वह महाराज को झूठ बोले! ये धर्मात्मा! जो कहे, सब सच! एक बिल्ली का बच्चा रास्ते पर फिर रहा। उसे चील ने झपट लिया। पंडित ने वही देखा। देखते रहे। वही घटना आपके आगे कह दी। इतने बड़े पंडित आपको जवाब न दे सके। आज रिस्ट है। सुबह किसका मुँह देखा?”

राजा ने लज्जित हो बंधन खुलवा दिए। उस दिन समझे कि पंडित राजसभा से रोज खाली हाथ लौटते हैं! हमारे राज में इतने बड़े पंडित भूख-प्यास में दिन काटें! बड़ी लज्जा की बात। उस दिन से पंडित का घर रुपयों से भर गया।

पंडित अब चैन से रह विद्या-चर्चा करने लगे।

(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)

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